सोमवार, 14 जनवरी 2008


अनुराग पुनेठा


हाल ही में भारतीय सेना ने दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध के मैदान सियाचिन ग्लेशियर को आम इंसान के लिये खोला...लद्दाख के उत्तर में बसे इस बेहद दुर्गम स्थान पर सिर्फ भारतीय फौज ही रहती है...इलाका इतना कठिन कि एक बार जाकर वंहा दोबारा जाने की हिम्मत फौजियो की भी नही होती...इस दुर्गम क्षेत्र में जाने का अवसर इस बार मिला...दरअसल 1984 से इस ग्लेशियर को लेकर भारत और पाकिस्तान में टकराव रहा है...ग्लेशियर को लेकर दोनो मुल्को के अपने अपने दावे हैं...एक आम नागरिक को ये ही बताया जाता है कि इस इलाके की रक्षा सेना कितनी कुर्बानी देकर कर रही है...ये दोनो भारत और पाकिस्तान की अवाम के साथ होता है...कुर्बानी की बात की जाये तो यकीनन भारतीय फौज की जांबाज़ी इस ग्लेशियर पर जाकर दिखायी देती है...जंहा तापमान -50 से भी नीचे पंहुच जाता होकैरोसिन तेल को छोडकर जंहा सबकुछ जम जाता हो...जंहा अब तक भारत के 3000 से ज्यादा फौजी अपनी जान दे चुके हो, और इन 3000 में से 90 फीसदी कुदरत के कहर का शिकार हुये हों...वंहा पर डटे रहना गजब की जीवटता के चलते ही हो सकता है...ये ग्लेशियर 75 किलोमीटर लंबा है...चौडाई करीब 4 से 5 किलोमीटर...पश्चिम में साल्टारो रिज और काराकोरम की पहाडियां है...झगडा इस ग्लेशियर पर कब्जे को लेकर है...1948 और 1971 के युद्द के बाद भी सियाचिन को लेकर कोई समझौता नही हुआ...लेकिन पाकिस्तान के इरादो के चलते ये जगह भी विवादो में गयी...पीओके से ग्लेशियर ज्यादा नजदीक आता हैं...लिहाजा पाकिस्तानीयो के लिये यंहा पहुंचना आसान रहा हैतो उसने 1970 के दशक में कुछ पर्वतारोहियो को जाने की इजाजत देदी...भारत को पता चला तो उसने विरोध शुरू किया.1981 में कैप्टन कुमार को ग्लेशियर पर भेजा..एक दौड शुरू हुयी जिसमें भारत जीता...ज्यादातर हिस्सो पर भारत का कब्जा हैं...लेकिन सवाल ये है किस कीमत पर ?? . मौसम का दैत्य यंहा हजारो फौजियो को निगल गया हैं...भारत यंहा हर रोज तकरीबन 3 करोड रूपये खर्च करता है...जिस फौजी को यंहा भेजा जाता है...उसे भी पता होता है कि वापस आने की संभावना 50 फीसदी है...लेकिन फिर भी भारतीय सेना वंहा काबिज़ है...दलील ये भी दी जाती है कि यदि हम वहां से हट गये तो पाकिस्तान जायेगा...लेकिन सवाल ये भी है कि जब हम पीओके लेने का जज्बा नही दिखा पाये (जबकि 1971 में हम कर सकते थे)अक्साई चीन को नही खाली करा पाये, अरूणाचल में तवांग को लेकर चीन के साथ आज तक किसी नतीजे पर नही पंहुचे है...तो एसे इलाके के लिये अपने फौजियो की जान झौकते रहना कंहा की समझदारी है...ये दुनिया में अपने किस्म का अकेला मामला है...हम दावा कर सकते है कि भारतीय फौज दुनिया के सबसे ऊचे बैटल फील्ड पर काबिज है...लेकिन कीमत देखिये...अगर पाकिस्तान इस ग्लेशियर पर भी जाता है, तो उसे भी इतनी कीमत चुकानी पडेगी...और इससे भारत को क्या नुकसान होगा...जंहा इसानो का चलना मुश्किल है, वहां टैक और तोपे तो चलेंगी नही...और वहां बैठकर भी पाकिस्तानीयो की शैलिंग का जबाब दिया जा सकता है...श्योक नदी या नुब्रा धाटी वैसे भी पाकिस्तानी तोपो के दायरे में आता है...तो यदि भारत जंहा आज बैस कैंप है, वहा तक जाता है...और ग्लेशियर को खाली कर देता है...तो इंसानी जान और बहुत पैसा बचेगा...जिसका इस्तैमाल भारतीय फौज कंही और कर सकती है...लेकिन फौज के हुक्मरानो की अपनी दलील है...जो देश की रक्षा के नाम पर लोगो की जुबान पर ताला लगवा देती है...मेरा अपना अनुभव ये था कि भारतीय फौजी कमाल कर रहा है...जंगल में मंगल करवा देता है...हमको कुमार पोस्ट(16200 फीट) तक जाने का अवसर मिला.जबकि बाना पोस्ट या इंदिरा कौल तक जाने में 28 या 29 दिन लगते है...तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी चुनौती होगी वंहा पर....सवाल ये भी है कि राजनैतिक इच्छा शक्ति क्या कोई कदम उठा पाती है... यहां भारतीय फौज पर सवाल उठाने का नही है,,शायद ही कोई एसा काम हो , जो फौज को मिला हो और उसने उसे सफलतापूर्वक ना किया हो...लेकिन सियाचिन पर फौज ही मारी जा रही है...आम इंसान नही...एक फौजी भी गोली खाकर मरना ज्यादा पंसद करेगा, ना कि खडे खडे मौसम की वजह से हैपो, हैको या Acute Mountain sickness से...

कोई टिप्पणी नहीं: